Make Money Here

Monday, January 7, 2019

सभी मनोरथ सिद्ध करता है शिव का यह प्रतिष्ठित मंत्र ॐ नमः शिवाय :

* ॐ नमः शिवाय : भगवान शिव का प्रिय मंत्र

ॐ इस एकाक्षर मंत्र में तीनों गुणों से अतीत, सर्वज्ञ, सर्वकर्ता, द्युतिमान सर्वव्यापी प्रभु शिव ही प्रतिष्ठित हैं। ईशान आदि जो सूक्ष्म एकाक्ष रूप ब्रह्म हैं, वे सब 'नमः शिवाय' इस मंत्र में क्रमशः स्थित हैं। सूक्ष्म षड़क्षर मंत्र में पंचब्रह्मरूपधारी साक्षात्‌ भगवान शिव स्वभावतः वाच्य और वाचक भाव से विराजमान हैं। अप्रमेय होने के कारण शिव वाच्य है और मंत्र उनका वाचक माना गया है।
शिव पुराण संहिता में कहा है कि सर्वज्ञ शिव ने संपूर्ण देहधारियों के सारे मनोरथों की सिद्धि के लिए इस 'ॐ नमः शिवाय' मंत्र का प्रतिपादन किया है। यह आदि षड़क्षर मंत्र संपूर्ण विद्याओं का बीज है। जैसे वट बीज में महान वृक्ष छिपा हुआ है, उसी प्रकार अत्यंत सूक्ष्म होने पर भी यह मंत्र महान अर्थ से परिपूर्ण है।




शिव और मंत्र का यह वाच्य वाचक भाव अनादिकाल से चला आ रहा है। जैसे यह घोर संसार सागर अनादिकाल से चला आ रहा है, उसी प्रकार संसार से छ़ुडानेवाले भगवान शिव भी अनादिकाल से ही नित्य विराजमान हैं। जैसे औषध रोगों का स्वभावतः शत्रु है, उसी प्रकार भगवान शिव संसार दोषों के स्वाभाविक शत्रु माने गए हैं।
यदि भगवान विश्वनाथ न होते तो यह जगत अंधकारमय हो जाता, क्योंकि प्रकृति जड़ है और जीवात्मा अज्ञानी। अतः इन्हें प्रकाश देने वाले परमात्मा ही हैं। उनके बंधन और मोक्ष भी देखे जाते हैं। अतः विचार करने से सर्वज्ञ परमात्मा शिव के बिना प्राणियों के आदिसर्व की सिद्धि नहीं होती। जैसे रोगी वैद्य के बिना सुख से रहित हो क्लेश उठाते हैं, उसी प्रकार सर्वज्ञ शिव का आश्रय न लेने से संसारी जीव नाना प्रकार के क्लेश भोगते हैं।
अतः यह सिद्ध हुआ कि जीवों का संसार सागर से उद्धार करने वाले स्वामी अनादि सर्वज्ञ परिपूर्ण सदाशिव विद्यमान हैं। भगवान शिव आदि मध्य और अंत से रहित हैं। स्वभाव से ही निर्मल हैं तथा सर्वज्ञ एवं परिपूर्ण हैं। उन्हें शिव नाम से जानना चाहिए। शिव गम में उनके स्वरूप का विशदरूप से वर्णन है। यह पच्चाक्षर मंत्र उनका ही नाम है और वे शिव अभिधेय हैं। अभिधान और अभिरधेय रूप होने के कारण परम शिवस्वरूप यह मंत्र सिद्ध माना गया है।
'ॐ नमः शिवाय' यह जो षड़क्षर शिव वाक्य है, शिव का विधि वाक्य है, अर्थवाद नहीं है। यह उन्हीं शिव का स्वरूप है जो सर्वज्ञ, परिपूर्ण और स्वभावतः निर्मल हैं। सर्वज्ञ शिव ने जिस निर्मल वाक्य पच्चाक्षर मंत्र का प्रणयन किया है, वह प्रमाणभूत ही है, इसमें संयम नहीं है। इसलिए विद्वान पुरुष को चाहिए कि वह ईश्वर के वचनों पर श्रद्धा करे। पच्चाक्षर मंत्र के जप में लगा पुरुष यदि पंडित, मूर्ख, अंत्यज अथवा अधर्म भी हो तो वह पाप जनित दुःखों से मुक्त हो जाता है। मंत्रों की संख्या बहुत होने पर भी जिस विमल षड़क्षर मंत्र का सर्वज्ञ शिव ने किया है, उसके समान कहीं कोई दूसरा मंत्र नहीं है।
षड़क्षर मंत्र में छहों अंगों सहित संपूर्ण वेद और शास्त्र विद्यमान हैं, अतः उसके समान दूसरा कोई मंत्र कहीं नहीं है। सात करोड़ महामंत्रों और अनेकानेक उपमंत्रों से यह षड़क्षर मंत्र उसी प्रकार भिन्न है, जैसे वृत्ति से सूत्र। जितने शिवज्ञान हैं और जो-जो विद्यास्थान हैं, वे सब षड़क्षर मंत्र रूपी सूत्र के संक्षिप्त भाष्य हैं।
जिसके हृदय में 'ॐ नमः शिवाय' यह षड़क्षर मंत्र प्रतिष्ठित है, उसे दूसरे बहुसंख्यक मंत्रों और अनेक विस्तृत शास्त्रों से क्या प्रयोजन है? जिसने 'ॐ नमः शिवाय' इस मंत्र का जप दृढ़तापूर्वक अपना लिया है, उसने संपूर्ण शास्त्र पढ़ लिया और समस्त शुभ कृत्यों का अनुष्ठान पूरा कर लिया। आदि में 'नमः' पद से युक्त 'शिवाय' ये तीन अक्षर जिसकी जिह्वा के अग्रभाग में विद्यमान हैं, उसका जीवन सफल हो गया।



Monday, December 10, 2018

ॐ आत्मा का संगीत |

ॐ के उच्चारण का रहस्य

ओम का यह चिन्ह 'ॐ' अद्भुत है। यह संपूर्ण ब्रह्मांड का प्रतीक है। बहुत-सी आकाश गंगाएँ इसी तरह फैली हुई है। ब्रह्म का अर्थ होता है विस्तार, फैलाव और फैलना। ओंकार ध्वनि के 100 से भी अधिक अर्थ दिए गए हैं। यह अनादि और अनंत तथा निर्वाण की अवस्था का प्रतीक है। 



आइंसटाइन भी यही कह कर गए हैं कि ब्राह्मांड फैल रहा है। आइंसटाइन से पूर्व भगवान महावीर ने कहा था। महावीर से पूर्व वेदों में इसका उल्लेख मिलता है। महावीर ने वेदों को पढ़कर नहीं कहा, उन्होंने तो ध्यान की अतल गहराइयों में उतर कर देखा तब कहा।

ॐ को ओम कहा जाता है। उसमें भी बोलते वक्त 'ओ' पर ज्यादा जोर होता है। इसे प्रणव मंत्र भी कहते हैं। यही है √ मंत्र बाकी सभी × है। इस मंत्र का प्रारंभ है अंत नहीं। यह ब्रह्मांड की अनाहत ध्वनि है। अनाहत अर्थात किसी भी प्रकार की टकराहट या दो चीजों या हाथों के संयोग के उत्पन्न ध्वनि नहीं। इसे अनहद भी कहते हैं। संपूर्ण ब्रह्मांड में यह अनवरत जारी है।
तपस्वी और ध्यानियों ने जब ध्यान की गहरी अवस्था में सुना की कोई एक ऐसी ध्वनि है जो लगातार सुनाई देती रहती है शरीर के भीतर भी और बाहर भी। हर कहीं, वही ध्वनि निरंतर जारी है और उसे सुनते रहने से मन और आत्मा शांती महसूस करती है तो उन्होंने उस ध्वनि को नाम दिया ओम।

साधारण मनुष्य उस ध्वनि को सुन नहीं सकता, लेकिन जो भी ओम का उच्चारण करता रहता है उसके आसपास सकारात्मक ऊर्जा का विकास होने लगता है। फिर भी उस ध्वनि को सुनने के लिए तो पूर्णत: मौन और ध्यान में होना जरूरी है। जो भी उस ध्वनि को सुनने लगता है वह परमात्मा से सीधा जुड़ने लगता है। परमात्मा से जुड़ने का साधारण तरीका है ॐ का उच्चारण करते रहना।
*त्रिदेव और त्रेलोक्य का प्रतीक : 
ॐ शब्द तीन ध्वनियों से बना हुआ है- अ, उ, म इन तीनों ध्वनियों का अर्थ उपनिषद में भी आता है। यह ब्रह्मा, विष्णु और महेश का प्रतीक भी है और यह भू: लोक, भूव: लोक और स्वर्ग लोग का प्रतीक है। 

*बीमारी दूर भगाएँ : तंत्र योग में एकाक्षर मंत्रों का भी विशेष महत्व है। देवनागरी लिपि के प्रत्येक शब्द में अनुस्वार लगाकर उन्हें मंत्र का स्वरूप दिया गया है। उदाहरण के तौर पर कं, खं, गं, घं आदि। इसी तरह श्रीं, क्लीं, ह्रीं, हूं, फट् आदि भी एकाक्षरी मंत्रों में गिने जाते हैं।
सभी मंत्रों का उच्चारण जीभ, होंठ, तालू, दाँत, कंठ और फेफड़ों से निकलने वाली वायु के सम्मिलित प्रभाव से संभव होता है। इससे निकलने वाली ध्वनि शरीर के सभी चक्रों और हारमोन स्राव करने वाली ग्रंथियों से टकराती है। इन ग्रंथिंयों के स्राव को नियंत्रित करके बीमारियों को दूर भगाया जा सकता है।

*उच्चारण की विधि : प्रातः उठकर पवित्र होकर ओंकार ध्वनि का उच्चारण करें। ॐ का उच्चारण पद्मासन, अर्धपद्मासन, सुखासन, वज्रासन में बैठकर कर सकते हैं। इसका उच्चारण 5, 7, 10, 21 बार अपने समयानुसार कर सकते हैं। ॐ जोर से बोल सकते हैं, धीरे-धीरे बोल सकते हैं। ॐ जप माला से भी कर सकते हैं। 
*इसके लाभ : इससे शरीर और मन को एकाग्र करने में मदद मिलेगी। दिल की धड़कन और रक्तसंचार व्यवस्थित होगा। इससे मानसिक बीमारियाँ दूर होती हैं। काम करने की शक्ति बढ़ जाती है। इसका उच्चारण करने वाला और इसे सुनने वाला दोनों ही लाभांवित होते हैं। इसके उच्चारण में पवित्रता का ध्यान रखा जाता है।

*शरीर में आवेगों का उतार-चढ़ाव : प्रिय या अप्रिय शब्दों की ध्वनि से श्रोता और वक्ता दोनों हर्ष, विषाद, क्रोध, घृणा, भय तथा कामेच्छा के आवेगों को महसूस करते हैं। अप्रिय शब्दों से निकलने वाली ध्वनि से मस्तिष्क में उत्पन्न काम, क्रोध, मोह, भय लोभ आदि की भावना से दिल की धड़कन तेज हो जाती है जिससे रक्त में 'टॉक्सिक' पदार्थ पैदा होने लगते हैं। इसी तरह प्रिय और मंगलमय शब्दों की ध्वनि मस्तिष्क, हृदय और रक्त पर अमृत की तरह आल्हादकारी रसायन की वर्षा करती है।

सत्यम शिवम सुंदरम | सनातन धर्म का सत्य |


सनातन का अर्थ है जो शाश्वत हो, सदा के लिए सत्य हो। जिन बातों का शाश्वत महत्व हो वही सनातन कही गई है। जैसे सत्य सनातन है। ईश्वर ही सत्य है, आत्मा ही सत्य है, मोक्ष ही सत्य है और इस सत्य के मार्ग को बताने वाला धर्म ही सनातन धर्म भी सत्य है। वह सत्य जो अनादि काल से चला आ रहा है और जिसका कभी भी अंत नहीं होगा वह ही सनातन या शाश्वत है। जिनका न प्रारंभ है और जिनका न अंत है उस सत्य को ही सनातन कहते हैं। यही सनातन धर्म का सत्य है।

वैदिक या हिंदू धर्म को इसलिए सनातन धर्म कहा जाता है, क्योंकि यही एकमात्र धर्म है जो ईश्वर, आत्मा और मोक्ष को तत्व और ध्यान से जानने का मार्ग बताता है। मोक्ष का कांसेप्ट इसी धर्म की देन है। एकनिष्ठता, ध्यान, मौन और तप सहित यम-नियम के अभ्यास और जागरण का मोक्ष मार्ग है अन्य कोई मोक्ष का मार्ग नहीं है। मोक्ष से ही आत्मज्ञान और ईश्वर का ज्ञान होता है। यही सनातन धर्म का सत्य है।



सनातन धर्म के मूल तत्व सत्य, अहिंसा, दया, क्षमा, दान, जप, तप, यम-नियम आदि हैं जिनका शाश्वत महत्व है। अन्य प्रमुख धर्मों के उदय के पूर्व वेदों में इन सिद्धान्तों को प्रतिपादित कर दिया गया था।

।।ॐ।।असतो मा सदगमय, तमसो मा ज्योर्तिगमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय।।- वृहदारण्य उपनिष
भावार्थ : अर्थात हे ईश्वर मुझे असत्य से सत्य की ओर ले चलो, अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो। मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो।

जो लोग उस परम तत्व परब्रह्म परमेश्वर को नहीं मानते हैं वे असत्य में गिरते हैं। असत्य से मृत्युकाल में अनंत अंधकार में पड़ते हैं। उनके जीवन की गाथा भ्रम और भटकाव की ही गाथा सिद्ध होती है। वे कभी अमृत्व को प्राप्त नहीं होते। मृत्यु आए इससे पहले ही सनातन धर्म के सत्य मार्ग पर आ जाने में ही भलाई है। अन्यथा अनंत योनियों में भटकने के बाद प्रलयकाल के अंधकार में पड़े रहना पड़ता है।

।।ॐ।। पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।।- ईश उपनिष

भावार्थ : सत्य दो धातुओं से मिलकर बना है सत् और तत्। सत का अर्थ यह और तत का अर्थ वह। दोनों ही सत्य है। अहं ब्रह्मास्मी और तत्वमसि। अर्थात मैं ही हूँ और तुम ही ब्रह्म हो। यह संपूर्ण जगत ब्रह्ममय है। ब्रह्म पूर्ण है। यह जगत् भी पूर्ण है। पूर्ण जगत् की उत्पत्ति पूर्ण ब्रह्म से हुई है। पूर्ण ब्रह्म से पूर्ण जगत् की उत्पत्ति होने पर भी ब्रह्म की पूर्णता में कोई न्यूनता नहीं आती। वह शेष रूप में भी पूर्ण ही रहता है। यही सनातन सत्य है।

जो तत्व सदा, सर्वदा, निर्लेप, निरंजन, निर्विकार और सदैव स्वरूप में स्थित रहता है उसे सनातन या शाश्वत सत्य कहते हैं। वेदों का ब्रह्म और गीता का स्थितप्रज्ञ ही शाश्वत सत्य है। जड़, प्राण, मन, आत्मा और ब्रह्म शाश्वत सत्य की श्रेणी में आते हैं। सृष्टि व ईश्वर (ब्रह्म) अनादि, अनंत, सनातन और सर्वविभु हैं।

जड़ पाँच तत्व से दृश्यमान है- आकाश, वायु, जल, अग्नि और पृथ्वी। यह सभी शाश्वत सत्य की श्रेणी में आते हैं। यह अपना रूप बदलते रहते हैं किंतु समाप्त नहीं होते। प्राण की भी अपनी अवस्थाएँ हैं: प्राण, अपान, समान और यम। उसी तरह आत्मा की अवस्थाएँ हैं: जाग्रत, स्वप्न, सुसुप्ति और तुर्या। ज्ञानी लोग ब्रह्म को निर्गुण और सगुण कहते हैं। उक्त सारे भेद तब तक विद्यमान रहते हैं जब तक ‍कि आत्मा मोक्ष प्राप्त न कर ले। यही सनातन धर्म का सत्य है।

ब्रह्म महाआकाश है तो आत्मा घटाकाश। आत्मा का मोक्ष परायण हो जाना ही ब्रह्म में लीन हो जाना है इसीलिए कहते हैं कि ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्‍या यही सनातन सत्य है। और इस शाश्वत सत्य को जानने या मानने वाला ही सनातनी कहलाता है।

हिंदुत्व :



हिन्दू एक अप्रभंश शब्द है। हिंदुत्व या हिंदू धर्म को प्राचीनकाल में सनातन धर्म कहा जाता था। एक हजार वर्ष पूर्व हिंदू शब्द का प्रचलन नहीं था। ऋग्वेद में कई बार सप्त सिंधु का उल्लेख मिलता है। सिंधु शब्द का अर्थ नदी या जलराशि होता है इसी आधार पर एक नदी का नाम सिंधु नदी रखा गया, जो लद्दाख और पाक से बहती है। भाषाविदों का मानना है कि हिंद-आर्य भाषाओं की 'स' ध्वनि ईरानी भाषाओं की 'ह' ध्वनि में बदल जाती है। आज भी भारत के कई इलाकों में 'स' को 'ह' उच्चारित किया जाता है।

इसलिए सप्त सिंधु अवेस्तन भाषा (पारसियों की भाषा) में जाकर हप्त हिंदू में परिवर्तित हो गया। इसी कारण ईरानियों ने सिंधु नदी के पूर्व में रहने वालों को हिंदू नाम दिया। किंतु पाकिस्तान के सिंध प्रांत के लोगों को आज भी सिंधू या सिंधी कहा जाता है।

ईरानी अर्थात पारस्य देश के पारसियों की धर्म पुस्तक 'अवेस्ता' में 'हिन्दू' और 'आर्य' शब्द का उल्लेख मिलता है। दूसरी ओर अन्य इतिहासकारों का मानना है कि चीनी यात्री हुएनसांग के समय में हिंदू शब्द की उत्पत्ति ‍इंदु से हुई थी। इंदु शब्द चंद्रमा का पर्यायवाची है। भारतीय ज्योतिषीय गणना का आधार चंद्रमास ही है। अत: चीन के लोग भारतीयों को 'इन्तु' या 'हिंदू' कहने लगे।

आर्यत्व :
आर्य समाज के लोग इसे आर्य धर्म कहते हैं, जबकि आर्य किसी जाति या धर्म का नाम न होकर इसका अर्थ सिर्फ श्रेष्ठ ही माना जाता है। अर्थात जो मन, वचन और कर्म से श्रेष्ठ है वही आर्य है। बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य का अर्थ चार श्रेष्ठ सत्य ही होता है। बुद्ध कहते हैं कि उक्त श्रेष्ठ व शाश्वत सत्य को जानकर आष्टांगिक मार्ग का अनुसरण करना ही 'एस धम्मो सनंतनो' अर्थात यही है सनातन धर्म।

इस प्रकार आर्य धर्म का अर्थ श्रेष्ठ समाज का धर्म ही होता है। प्राचीन भारत को आर्यावर्त भी कहा जाता था जिसका तात्पर्य श्रेष्ठ जनों के निवास की भूमि था।

सनातन मार्ग :
विज्ञान जब प्रत्येक वस्तु, विचार और तत्व का मूल्यांकन करता है तो इस प्रक्रिया में धर्म के अनेक विश्वास और सिद्धांत धराशायी हो जाते हैं। विज्ञान भी सनातन सत्य को पकड़ने में अभी तक कामयाब नहीं हुआ है किंतु वेदांत में उल्लेखित जिस सनातन सत्य की महिमा का वर्णन किया गया है विज्ञान धीरे-धीरे उससे सहमत होता नजर आ रहा है।

हमारे ऋषि-मुनियों ने ध्यान और मोक्ष की गहरी अवस्था में ब्रह्म, ब्रह्मांड और आत्मा के रहस्य को जानकर उसे स्पष्ट तौर पर व्यक्त किया था। वेदों में ही सर्वप्रथम ब्रह्म और ब्रह्मांड के रहस्य पर से पर्दा हटाकर 'मोक्ष' की धारणा को प्रतिपादित कर उसके महत्व को समझाया गया था। मोक्ष के बगैर आत्मा की कोई गति नहीं इसीलिए ऋषियों ने मोक्ष के मार्ग को ही सनातन मार्ग माना है।



मोक्ष का मार्ग : 
धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष में मोक्ष अंतिम लक्ष्य है। यम, नियम, अभ्यास और जागरण से ही मोक्ष मार्ग पुष्ट होता है। जन्म और मृत्यु मिथ्‍या है। जगत भ्रमपूर्ण है। ब्रह्म और मोक्ष ही सत्य है। मोक्ष से ही ब्रह्म हुआ जा सकता है। इसके अलावा स्वयं के अस्तित्व को कायम करने का कोई उपाय नहीं। ब्रह्म के प्रति ही समर्पित रहने वाले को ब्राह्मण और ब्रह्म को जानने वाले को ब्रह्मर्षि और ब्रह्म को जानकर ब्रह्ममय हो जाने वाले को ही ब्रह्मलीन कहते हैं। 

विरोधाभासी नहीं है सनातन धर्म : 
सनातन धर्म के सत्य को जन्म देने वाले अलग-अलग काल में अनेक ऋषि हुए हैं। उक्त ऋषियों को दृष्टा कहा जाता है। अर्थात जिन्होंने सत्य को जैसा देखा, वैसा कहा। इसीलिए सभी ऋषियों की बातों में एकरूपता है। जो उक्त ऋषियों की बातों को नहीं समझ पाते वही उसमें भेद करते हैं। भेद भाषाओं में होता है, अनुवादकों में होता है, संस्कृतियों में होता है, परम्पराओं में होता है, सिद्धांतों में होता है, लेकिन सत्य में नहीं। 

क्या वेदों में पशुबलि, मांसाहार आदि का विधान है?

वेदों के विषय में सबसे अधिक प्रचलित अगर कोई शंका है तो वह है कि क्या वेदों में पशुबलि, मांसाहार आदि का विधान है? इस लेख के माध्यम से आप इन प्रश्नों का उत्तर सहजता से पा सकते हैं।

इस भ्रांति के होने के मुख्य-मुख्य कुछ कारण हैं। सर्वप्रथम तो पाश्चात्य विद्वानों जैसे मैक्समुलर [i], ग्रिफ्फिथ [ii] आदि द्वारा यज्ञों में पशुबलि, मांसाहार आदि का विधान मानना, द्वितीय मध्य काल के आचार्यों जैसे सायण [iii], महीधर [iv] आदि का यज्ञों में पशुबलि का समर्थन करना, तीसरा ईसाइयों, मुसलमानों आदि द्वारा मांसभक्षण के समर्थन में वेदों की साक्षी देना [v], चौथा साम्यवादी अथवा नास्तिक विचारधारा [vi] के समर्थकों द्वारा सुनी-सुनाई बातों को बिना जांचे बार-बार रटना।


 
किसी भी सिद्धांत अथवा किसी भी तथ्य को आंख बंद कर मान लेना बुद्धिमान लोगों का लक्षण नहीं है। हम वेदों के सिद्धांत की परीक्षा वेदों की साक्षी द्वारा करेंगे जिससे कि हमारी भ्रांति का निराकरण हो सके। 
 
शंका 1. क्या वेदों में मांसभक्षण का विधान है?
समाधान : वेदों में मांसभक्षण का स्पष्ट निषेध किया गया है। अनेक वेद मंत्रों में स्पष्ट रूप से किसी भी प्राणी को मारकर खाने का स्पष्ट निषेध किया गया हैं, जैसे 
 
हे मनुष्यों! जो गौ आदि पशु हैं वे कभी भी हिंसा करने योग्य नहीं हैं। -यजुर्वेद 1।1
 
जो लोग परमात्मा के सहचरी प्राणीमात्र को अपनी आत्मा का तुल्य जानते हैं अर्थात जैसे अपना हित चाहते हैं, वैसे ही अन्यों में भी व्रतते हैं। -यजुर्वेद 40।7
 
हे दांतों तुम चावल खाओ, जौ खाओ, उड़द खाओ और तिल खाओ। तुम्हारे लिए यही रमणीय भोज्य पदार्थों का भाग है। तुम किसी भी नर और मादा की कभी हिंसा मत करो। -अथर्ववेद 6।140।2
 
वह लोग जो नर और मादा, भ्रूण और अंडों के नाश से उपलब्ध हुए मांस को कच्चा या पकाकर खाते हैं, हमें उनका विरोध करना चाहिए। -अथर्ववेद 8।6।23
 
निर्दोषों को मारना निश्चित ही महापाप है, हमारे गाय, घोड़े और पुरुषों को मत मार। -अथर्ववेद 10।1।29
 
इन मंत्रों में स्पष्ट रूप से यह संदेश दिया गया है कि वेदों के अनुसार मांसभक्षण निषेध है। 
 
शंका 2. क्या वेदों के अनुसार यज्ञों में पशुबलि का विधान है?
समाधान : यज्ञ की महता का गुणगान करते हुए वेद कहते हैं कि सत्यनिष्ठ विद्वान लोग यज्ञों द्वारा ही पूजनीय परमेश्वर की पूजा करते हैं। [vii]
 
यज्ञों में सब श्रेष्ठ धर्मों का समावेश होता है। यज्ञ शब्द जिस यज् धातु से बनता है। उसके देवपूजा, संगतिकरण और दान हैं इसलिए यज्ञों वै श्रेष्ठतमं कर्म [viii] एवं यज्ञो हि श्रेष्ठतमं कर्म [ix] इत्यादि कथन मिलते हैं। यज्ञ न करने वाले के लिए वेद कहते हैं कि जो यज्ञमयी नौका पर चढ़ने में समर्थ नहीं होते वे कुत्सित, अपवित्र आचरण वाले होकर यही इस लोक में नीचे-नीचे गिरते जाते हैं। [x] 
 
एक ओर वेद यज्ञ की महिमा को परमेश्वर की प्राप्ति का साधन बताते हैं दूसरी ओर वैदिक यज्ञों में पशुबलि का विधान भ्रांत धारणा मात्र है।
 
यज्ञ में पशुबलि का विधान मध्यकाल की देन है। प्राचीनकाल में यज्ञों में पशुबलि आदि प्रचलित नहीं थे। मध्यकाल में जब गिरावट का दौर आया तब मांसाहार, शराब आदि का प्रयोग प्रचलित हो गया। 
 
सायण, महीधर आदि के वेद भाष्य में मांसाहार, हवन में पशुबलि, गाय, अश्व, बैल आदि का वध करने की अनुमति थी जिसे देखकर मैक्समुलर, विल्सन [xi], ग्रिफ्फिथ आदि पाश्चात्य विद्वानों ने वेदों से मांसाहार का भरपूर प्रचार कर न केवल पवित्र वेदों को कलंकित किया अपितु लाखों निर्दोष प्राणियों को मरवाकर मनुष्य जाति को पापी बना दिया। 
 
मध्यकाल में हमारे देश में वाम मार्ग का प्रचार हो गया था, जो मांस, मदिरा, मैथुन, मीन आदि से मोक्ष की प्राप्ति मानता था। आचार्य सायण आदि यूं तो विद्वान थे, पर वाम मार्ग से प्रभावित होने के कारण वेदों में मांसभक्षण एवं पशु बलि का विधान दर्शा बैठे। 
 
निरीह प्राणियों के इस तरह कत्लेआम एवं बोझिल कर्मकांड को देखकर ही महात्मा बुद्ध [xii] एवं महावीर ने वेदों को हिंसा से लिप्त मानकर उन्हें अमान्य घोषित कर दिया जिससे वेदों की बड़ी हानि हुई एवं अवैदिक मतों का प्रचार हुआ जिससे क्षत्रिय धर्म का नाश होने से देश को गुलामी सहनी पड़ी। 
 
इस प्रकार वेदों में मांसभक्षण के गलत प्रचार के कारण देश की कितनी हानि हुई, इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। एक ओर वेदों में जीव रक्षा और निरामिष भोजन का आदेश है तो दूसरी ओर उसके विपरीत उन्हीं वेदों में पशु आदि की यज्ञों में बलि तर्क संगत नहीं लगती है। 
 
स्वामी दयानंद [xiii] ने वेदभाष्य में मांसभक्षण, पशुबलि आदि को लेकर जो भ्रांति देश में फैली थी, उसका निवारण कर साधारण जनमानस के मन में वेद के प्रति श्रद्धाभाव उत्पन्न किया। वेदों में यज्ञों में पशुबलि के विरोध में अनेक मंत्रों का विधान हैं, जैसे- 
 
यज्ञ के विषय में अध्वर शब्द का प्रयोग वेद मंत्रों में हुआ है जिसका अर्थ निरुक्त [xiv] के अनुसार हिंसारहित कर्म है। 
 
हे ज्ञानस्वरूप परमेश्वर, तू हिंसारहित यज्ञों (अध्वर) में ही व्याप्त होता है और ऐसे ही यज्ञों को सत्यनिष्ठ विद्वान लोग सदा स्वीकार करते हैं। -ऋग्वेद 1/1/4 
 
यज्ञ के लिए अध्वर शब्द का प्रयोग ऋग्वेद 1/1/8, ऋग्वेद 1/14/21,ऋग्वेद 1/128/4 ऋग्वेद 1/19/1, ऋग्वेद 3/21/1, सामवेद 2/4/2, अथर्ववेद 4/24/3, अथर्ववेद 1/4/2 इत्यादि मंत्रों में इसी प्रकार से हुआ है। अध्वर शब्द का प्रयोग चारों वेदों में अनेक मंत्रों में होना हिंसारहित यज्ञ का उपदेश है। 
 
हे प्रभु! मुझे सब प्राणी मित्र की दृष्टि से देखें, मैं सब प्राणियों को मित्र की प्रेममय दृष्टि से देखूं, हम सब आपस में मित्र की दृष्टि से देखें। -यजुर्वेद 36/18
 
यज्ञ को श्रेष्ठतम कर्म के नाम से पुकारते हुए उपदेश है कि पशुओं की रक्षा करें। -यजुर्वेद 1 /1 
 
पति-पत्नी के लिए उपदेश है कि पशुओं की रक्षा करें। -यजुर्वेद 6/11 
 
हे मनुष्य, तू दो पैर वाले अर्थात अन्य मनुष्यों एवं चार पैर वाले अर्थात पशुओं की भी सदा रक्षा कर। -यजुर्वेद 14 /8
 
चारों वेदों में दिए गए अनेक मंत्रों से यह सिद्ध होता है कि यज्ञों में हिंसारहित कर्म करने का विधान है एवं मनुष्य को अन्य पशु-पक्षियों की रक्षा करने का स्पष्ट आदेश है।
 
शंका 3. क्या वेदों में वर्णित अश्वमेध, नरमेध, अजमेध, गोमेध में घोड़ा, मनुष्य, गौ की यज्ञों में बलि देने का विधान नहीं है? मेध का मतलब है मारना जिससे यह सिद्ध होता है?
 
समाधान : मेध शब्द का अर्थ केवल हिंसा नहीं है। मेध शब्द के 3 अर्थ हैं- 1. मेधा अथवा शुद्ध बुद्धि को बढ़ाना, 2. लोगों में एकता अथवा प्रेम को बढ़ाना, 3. हिंसा। इसलिए मेध से केवल हिंसा शब्द का अर्थ ग्रहण करना उचित नहीं है। 
 
जब यज्ञ को अध्वर अर्थात ‘हिंसारहित' कहा गया है तो उसके संदर्भ में ‘मेध' का अर्थ हिंसा क्यों लिया जाए? बुद्धिमान व्यक्ति ‘मेधावी' कहे जाते हैं और इसी तरह लड़कियों का नाम मेधा, सुमेधा इत्यादि रखा जाता है, तो क्या ये नाम क्या उनके हिंसक होने के कारण रखे जाते हैं? या बुद्धिमान होने के कारण?
 
अश्वमेध शब्द का अर्थ यज्ञ में अश्व की बलि देना नहीं है अपितु शतपथ 13.1.6.3 और 13.2.2.3 के अनुसार राष्ट्र के गौरव, कल्याण और विकास के लिए किए जाने वाले सभी कार्य 'अश्वमेध' है [xv]। 
 
गौमेध का अर्थ यज्ञ में गौ की बलि देना नहीं है अपितु अन्न को दूषित होने से बचाना, अपनी इन्द्रियों को वश में रखना, सूर्य की किरणों से उचित उपयोग लेना, धरती को पवित्र या साफ रखना ‘गोमेध' यज्ञ है। ‘गो’ शब्द का एक और अर्थ है पृथ्वी। पृथ्वी और उसके पर्यावरण को स्वच्छ रखना ‘गोमेध’ कहलाता है। [xvi] 
 
नरमेध का अर्थ है मनुष्य की बलि देना नहीं है अपितु मनुष्य की मृत्यु के बाद उसके शरीर का वैदिक रीति से दाह-संस्कार करना नरमेध यज्ञ है। मनुष्यों को उत्तम कार्यों के लिए प्रशिक्षित एवं संगठित करना नरमेध या पुरुषमेध या नृमेध यज्ञ कहलाता है।
 
अजमेध का अर्थ बकरी आदि की यज्ञ में बलि देना नहीं है अपितु अज कहते हैं बीज, अनाज या धान आदि कृषि की पैदावार बढ़ाना है। अजमेध का सीमित अर्थ अग्निहोत्र में धान आदि की आहुति देना है। [xvii]
 
शंका 4 : यजुर्वेद मंत्र 24/29 में हस्तिन आलभते अर्थात हाथियों को मारने का विधान है।
समाधान : 'लभ्’ धातु से बनने वाले आलम्भ शब्द का अर्थ मारना नहीं अपितु अच्छी प्रकार से प्राप्त करना, स्पर्श करना या देना होता है। हस्तिन शब्द का अर्थ अगर हाथी लें तो इस मंत्र में राजा को अपने राज्य के विकास हेतु हाथी आदि को प्राप्त करना, अपनी सेनाओं को सुदृढ़ करना बताया गया है। यहां पर हिंसा का कोई विधान नहीं है।
 
पारस्कर सूत्र 2 /2/16 में कहा गया है कि आचार्य ब्रह्मचारी का आलम्भ अर्थात हृदय का स्पर्श करता है। यहां पर आलम्भ का अर्थ स्पर्श आया है। 
 
पारस्कर सूत्र 1/8/8 में ही आया है कि वर वधू के दक्षिण कंधे के ऊपर हाथ ले जाकर उसके हृदय का स्पर्श करे। यहां पर भी आलम्भ का अर्थ स्पर्श आया है। 
 
अगर यहां पर आलम्भ शब्द का अर्थ मारना ग्रहण करें तो यह कैसे युक्तिसंगत एवं तर्कसंगत सिद्ध होगा? इससे सिद्ध होता है कि आलम्भ शब्द का अर्थ ग्रहण करना, प्राप्त करना अथवा स्पर्श करना है।
 
शंका 5 : वेद, ब्राह्मण एवं सूत्र ग्रंथों में संज्ञपन शब्द आया है जिसका अर्थ पशु को मारना है?
समाधान : संज्ञपन शब्द का अर्थ है ज्ञान देना, दिलाना तथा मेल कराना। अथर्ववेद 6/10/14-15 में लिखा है कि तुम्हारे मन का ज्ञानपूर्वक अच्छी प्रकार (संज्ञपन) मेल हो, तुम्हारे हृदयों का ज्ञानपूर्वक अच्छी प्रकार (संज्ञपन) मेल हो। 
 
इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण 1/4 में एक आख्यानिका है जिसका अर्थ है- मैं वाणी तुझ मन से अधिक अच्छी हूं, तू जो कुछ मन में चिंतन करता है मैं उसे प्रकट करती हूं, मैं उसे अच्छी प्रकार से दूसरों को जतलाती हूं (संज्ञपयामी)। संज्ञपन शब्द का मेल के स्थान पर हिंसापरक अर्थ करना अज्ञानता का परिचायक है।
 
शंका 6 : वेदों में गोघ्न अर्थात गायों के वध करने का आदेश है। 
समाधान : गोघ्न शब्द में हन धातु का प्रयोग है जिसके दो अर्थ बनते हैं हिंसा और गति। गोघ्न में उसका गति अथवा ज्ञान, गमन, प्राप्ति विषयक अर्थ है। मुख्य भाव यहां प्राप्ति का है अर्थात जिसे उत्तम गौ प्राप्त कराई जाए।
 
हिंसा के प्रकरण में वेद का उपदेश गौ की हत्या करने वाले से दूर रहने का है। 
ऋग्वेद 1/114 /10 में लिखा है, जो गोघ्न (गौ की हत्या करने वाला) है, वह नीच पुरुष है। वह तुमसे दूर ही रहे।
 
वेदों के कई उदाहरणों से पता चलता है कि ‘हन्’ का प्रयोग किसी के निकट जाने या पास पहुंचने के लिए भी किया जाता है। उदाहरण में अथर्ववेद 6/101/1 में पति को पत्नी के पास जाने का उपदेश है।
 
इस मंत्र का यह अर्थ कि पति पत्नी के पास जाए उचित प्रतीत होता है न कि पति द्वारा पत्नी को मारना उचित सिद्ध होता है इसलिए हनन का केवल हिंसा अर्थ गलत परिप्रेक्ष्य में प्रयोग करना भ्रम फैलाने के समान है।
 
शंका 7. वेदों में अतिथि को भोजन में गौ आदि का मांस पकाकर खिलाने का आदेश है। 
समाधान- ऋग्वेद के मंत्र 10/68 /3 में अतिथिनीर्गा: का अर्थ अतिथियों के लिए गौए किया गया है जिसका तात्पर्य यह प्रतीत होता है कि किसी प्रतिष्ठित व्यक्ति के आने पर गौ को मारकर उसके मांस से उसे तृप्त किया जाता था। 
 
यहां पर जो भ्रम हुआ है उसका मुख्य कारण अतिथिनी शब्द को समझने की गलती के कारण हुआ है। यहां पर उचित अर्थ बनता है ऐसी गौएं जो अतिथियों के पास दानार्थ लाई जाएं, उन्हें दान की जाएं।
 
Monier Williams ने भी अपनी संस्कृत-इंग्लिश शब्दकोश में अतिथिग्व का अर्थ "To whom guests should go" (P.14) अर्थात जिसके पास अतिथि प्रेमवश जाएं ऐसा किया है। श्री Bloomfield ने भी इसका अर्थ "Presenting cows to guests" अर्थात अतिथियों को गौएं भेंट करने वाला ही किया है। अतिथि को गौमांस परोसना कपोल-कल्पित है। [xviii]
 
शंका 8. वेदों में बैल को मारकर खाने का आदेश है? 
समाधान- यह भी एक भ्रांति है कि वेदों में बैल को खाने का आदेश है। वेदों में जैसे गौ के लिए अघन्या अर्थात न मारने योग्य शब्द का प्रयोग है उसी प्रकार से बैल के लिए अघ्न्य शब्द का प्रयोग है।
 
यजुर्वेद 12/73 में अघन्या शब्द का प्रयोग बैल के लिए हुआ है। इसकी पुष्टि सायणाचार्य ने काण्वसंहिता में भी की है। इसी प्रकार से अथर्ववेद 9/4/17 में लिखा है कि बैल सींगों से अपनी रक्षा स्वयं करता है, परंतु मानव समाज को भी उसकी रक्षा में भाग लेना चाहिए। 
 
अथर्ववेद 9/4/19 मंत्र में बैल के लिए अघन्य और गौ के लिए अघन्या शब्दों का वर्णन मिलता है। यहां पर लिखा है कि ब्राह्मणों को ऋषभ (बैल) का दान करके यह दाता अपने को स्वार्थ त्याग द्वारा श्रेष्ठ बनाता है। वह अपनी गोशाला में बैलों और गौओं की पुष्टि देखता है। 
 
अथर्ववेद 9/4/20 मंत्र में जो सत्पात्र में वृषभ (बैल) का दान करता है उसकी गौएं संतान आदि उत्तम रहती हैं। 
 
इन उदाहरणों से यह सिद्ध होता है कि गौ के साथ-साथ बैल की रक्षा का वेद संदेश देते हैं।
 
शंका 9. वेद में वशा/ वंध्या अर्थात वृद्ध गौ अथवा बैल (उक्षा) को मारने का विधान है? 
समाधान- शंका का कारण ऋग्वेद 8/43/11 मंत्र के अनुसार वन्ध्या गौओं की अग्नि में आहुति देने का विधान बताया गया है। यह सर्वथा अशुद्ध है। 
 
इस मंत्र का वास्तविक अर्थ निघण्टु 3/3 के अनुसार यह है कि जैसे महान सूर्य आदि भी जिसके प्रलयकाल में (वशा) अन्न व भोज्य के समान हो जाते हैं, इसका शतपथ 5/1/3 के अनुसार अर्थ है पृथ्वी भी जिसके (वशा) अन्न के समान भोज्य है ऐसे परमेश्वर की नमस्कारपूर्वक स्तुतियों से सेवा करते हैं। 
 
वेदों के विषय में इस भ्रांति के होने का मुख्य कारण वशा, उक्षा, ऋषभ आदि शब्दों के अर्थ न समझ पाना है। यज्ञ प्रकरण में उक्षा और वशा दोनों शब्दों के औषधिपरक अर्थ का ग्रहण करना चाहिए जिन्हें अग्नि में डाला जाता है। सायणाचार्य एवं मोनियर विलियम्स के अनुसार उक्षा शब्द के अर्थ सोम, सूर्य, ऋषभ नामक औषधि है। 
 
वशा शब्द के अन्य अर्थ अथर्ववेद 1/10/1 के अनुसार ईश्वरीय नियम वा नियामक शक्ति है। शतपथ 1/8/3/15 के अनुसार वशा का अर्थ पृथ्वी भी है। अथर्ववेद 20/103/15 के अनुसार वशा का अर्थ संतान को वश में रखने वाली उत्तम स्त्री भी है। 
 
इस सत्यार्थ को न समझकर वेद मंत्रों का अनर्थ करना निंदनीय है।
 
शंका 10. वेदादि धर्मग्रंथों में माष शब्द का उल्लेख हैं जिसका अर्थ मांस खाना है। 
समाधान- माष शब्द का प्रयोग ‘माषौदनम्' के रूप में हुआ है। इसे बदलकर किसी मांसभक्षी ने मांसौदनम् अर्थ कर दिया है। यहां पर माष एक दाल के समान वर्णित है इसलिए यहां मांस का तो प्रश्न ही नहीं उठता। 
 
आयुर्वेद (सुश्रुत संहिता शरीर अध्याय 2) गर्भवती स्त्रियों के लिए मांसाहार को सख्त मना करता है और उत्तम संतान पाने के लिए माष (दाल) सेवन को हितकारी कहता है। इससे क्या स्पष्ट होता है। यही कि माष शब्द का अर्थ मांसाहार नहीं अपितु दाल आदि को खाने का आदेश है। फिर भी अगर कोई माष को मांस ही कहना चाहे, तब भी मांस को निरुक्त 4/1/3 के अनुसार मनन साधक, बुद्धिवर्धक और मन को अच्छी लगने वाली वास्तु जैसे फलका गूदा, खीर आदि कहा गया है। प्राचीन ग्रंथों में मांस अर्थात गूदा खाने के अनेक प्रमाण मिलते है, जैसे चरक संहिता देखे में आम्रमांसं (आम का गूदा), खजूरमांसं (खजूर का गूदा), तैत्तरीय संहिता 2.32.8 (दही, शहद और धान) को मांस कहा गया है। 
 
इससे यही सिद्ध होता है कि वेदादि शास्त्रों में जहां पर माष शब्द आता है अथवा मांस के रूप में भी जिसका प्रयोग हुआ है उसका अर्थ दाल अथवा फलों का मध्य भाग अर्थात गूदा है।
 
शंका 11. वेदों में यज्ञ में घोड़े की बलि देने का और घोड़े का मांस पकाने का वेदों में आदेश है। 
समाधान- यजुर्वेद के 25 अध्याय में सायण, महीधर, उव्वट, ग्रिफ्फिथ, मैक्समुलर आदि ने अश्व हिंसापरक अर्थ किए हैं। इसका मुख्य कारण वाजिनम् शब्द के अर्थ को न समझना है। वाजिनम् का अश्व के साथ-साथ अन्य अर्थ है शूर, बलवान, गतिशील और तेज। 
 
यजुर्वेद के 25/34 मंत्र का अर्थ करते हुए सायण लिखते हैं कि अग्नि से पकाए, मरे हुए तेरे अवयवों से जो मांस-रस उठता है वह भूमि या तृण पर न गिरे, वह चाहते हुए देवों को प्राप्त हो। 
 
इस मंत्र का अर्थ स्वामी दयानंद वेद भाष्य में लिखते हैं- हे मनुष्य, जो ज्वर आदि से पीड़ित अंग हो उन्हें वैद्यजनों से निरोग कराना चाहिए। चूंकि उन वैद्यजनों द्वारा जो औषध दी जाती है वह रोगीजन के लिए हितकारी होती है एवं मनुष्य को व्यर्थ वचनों का उच्चारण न करना चाहिए, किंतु विद्वानों के प्रति उत्तम वचनों का ही सदा प्रयोग करना चाहिए। 
 
अश्व की हिंसा के विरुद्ध यजुर्वेद 13/47 मंत्र का शतपथकार ने पृष्ठ 668 पर अर्थ लिखा है कि अश्व की हिंसा न कर। 
 
यजुर्वेद 25/44 के यज्ञ में घोड़े की बलि के समर्थन में अर्थ करते हुए सायण लिखते हैं कि हे अश्व! तू अन्य अश्वों की तरह मरता नहीं, चूंकि तुझे देवत्व प्राप्ति होगी और न हिंसित होता है, क्यूंकि व्यर्थ हिंसा का यहां अभाव है। प्रत्यक्ष रूप में अवयव नाश होते हुए ऐसा कैसे कहते हो? इसका उत्तर देते हैं कि सुंदर देवयान मार्गों से देवों को तू प्राप्त होता है इसलिए यह हमारा कथन सत्य है। इस मंत्र का स्वामी दयानंद अर्थ करते हैं कि जैसे विद्या से अच्छे प्रकार प्रयुक्त अग्नि, जल, वायु इत्यादि से युक्त रथ में स्थित होकर मार्गों से सुख से जाते हैं, वैसे ही आत्मज्ञान से अपने स्वरूप को नित्य जान के मरण और हिंसा के डर को छोड़कर दिव्य सुखों को प्राप्त हो। 
 
पाठक स्वयं विचार करें ‍कि कहां स्वामी दयानंद द्वारा किया गया सच्चा उत्तम अर्थ और कहां सायण आदि के हिंसापरक अर्थ। दोनों में आकाश-पाताल का भेद है। ऐसा ही भेद वेद के उन सभी मंत्रों में है जिनका अर्थ हिंसापरक रूप में किया गया है अत: वे मानने योग्य नहीं हैं।
 
शंका 12. क्या वेदों के अनुसार इंद्र देवता बैल खाता है?
समाधान- इंद्र द्वारा बैल खाने के समर्थन में ऋग्वेद 10/28/3 और 10/86/14 मंत्र का उदाहरण दिया जाता है। यहां पर वृषभ और उक्षन् शब्दों के अर्थ से अनभिज्ञ लोग उनका अर्थ बैल कर देते हैं। ऋग्वेद में लगभग 20 स्थलों पर अग्नि को, 65 स्थलों पर इंद्र को, 11 स्थलों पर सोम को, 3 स्थलों पर पर्जन्य को, 5 स्थलों पर बृहस्पति को, 5 स्थलों पर रुद्र को वृषभ कहा गया है [xix]। व्याख्याकारों के अनुसार वृषभ का अर्थ यज्ञ है। 
 
उक्षन् शब्द का अर्थ ऋग्वेद में अग्नि, सोम, आदित्य, मरुत आदि के लिए प्रयोग हुआ है। जब वृषभ और उक्षन् शब्दों के इतने सारे अर्थ वेदों में दिए गए हैं, तब उनका व्यर्थ ही बैल अर्थ कर उसे इंद्र को खिलाना युक्तिसंगत एवं तर्कपूर्ण नहीं है। 
 
इसी संदर्भ में ऋग्वेद में इंद्र के भोज्य पदार्थ निरामिषरूपी धान, करम्भ, पुरोडाश तथा पेय सोमरस है, न कि बैल को बताया गया है। [xx]
 
शंका 13. वेदों में गौ का क्या स्थान है?
समाधान- यजुर्वेद 8/43 में गाय का नाम इडा, रंता, हव्या, काम्या, चन्द्रा, ज्योति, अदिति, सरस्वती, महि, विश्रुति और अघन्या [xxi] कहा गया है। स्तुति की पात्र होने से इडा, रमयित्री होने से रंता, इसके दूध की यज्ञ में आहुति दी जाने से हव्या, चाहने योग्य होने से काम्या, हृदय को प्रसन्न करने से चन्द्रा, अखंडनीय होने से अदिति, दुग्धवती होने से सरस्वती, महिमशालिनी होने से महि, विविध रूप में श्रुत होने से विश्रुति तथा न मारी जाने योग्य होने से अघन्या [xxii] कहलाती है [xxiii]।
 
अघन्या शब्द में गाय का वध न करने का संदेश इतना स्पष्ट है कि विदेशी लेखक भी उसे भली प्रकार से स्वीकार करते हैं। [xxiv]
 
हे गौओं, तुम पूज्य हो, तुम्हारी पूज्यता मैं भी प्राप्त करूं। -यजुर्वेद 3/20
 
मैं समझदार मनुष्य को कहे देता हूं कि तू बेचारी बेकसूर गाय की हत्या मत कर, वह अदिति है काटने-चीरने योग्य नहीं है। -ऋग्वेद 8/101/15
 
उस देवी गौ को मनुष्य अल्प बुद्धि होकर मारे-काटे नहीं। -ऋग्वेद 8/101/16
निरपराध की हत्या बड़ी भयंकर होती है अत: तू हमारे गाय, घोड़े और पुरुष को मत मार। -अथर्ववेद 10/1/29
 
गौएं वधशाला में न जाएं। -ऋग्वेद 6/28/4
गाय का वध मत कर। -यजुर्वेद 13/43

10 चमत्कारिक और खतरनाक साधनाएं

भारत में बहुत-सी ऐसी साधनाएं है जिनका धर्म से कोई नाता नहीं और कुछ का है। तांत्रिक साधनाओं को नकारात्मक या वाम साधनाओं की श्रेणी में रखा जाता है। गायत्री और योगसम्मत दक्षिणमार्गी साधनाएं होती है वैसे ही उनसे अलग तंत्रोक्त साधनाएं भी होती है। हालांकि तांत्रिक साधनाओं के अलावा ऐसी भी साधनाएं हैं जिनको धर्म में निषेध माना गया है। शैव, शाक्त और नाथ संप्रदाय में सभी तरह की साधनाओं का प्रचलन है। 
तंत्र साधना में शांति कर्म, वशीकरण, स्तंभन, विद्वेषण, उच्चाटन और मारण नामक छ: तांत्रिक षट् कर्म होते हैं। इसके अलावा नौ प्रयोगों का वर्णन मिलता है:- मारण, मोहनं, स्तंभनं, विद्वेषण, उच्चाटन, वशीकरण, आकर्षण, यक्षिणी साधना, रसायन क्रिया तंत्र के ये नौ प्रयोग हैं।



 
उक्त सभी को करने के लिए अन्य कई तरह के देवी-देवताओं की साधना की जाती है। अघोरी लोग इसके लिए शिव साधना, शव साधना और श्मशान साधना करते हैं। बहुत से लोग भैरव साधना, नाग साधना, पैशाचिनी साधना, यक्षिणी साधा या रुद्र साधना करते हैं।
 
हमने खोजी है ऐसी 10 तरह की साधनाएं जिनके बारे में कहा जाता है कि जिनको करने से आपका जीवन सफल भी हो सकता है या बर्बाद भी। इन साधनाओं को करने में बहुत सावधानी और हिम्मत की जरूरत होती है। हालांकि कोई ऐसी साधना क्यूं करता है यह एक सवाल हो सकता है। आओ जानते हैं 10 तरह की खतरनाक साधनाओं के बारे में...

1. नवदुर्गा साधना : माता दुर्गा की यह सात्विक साधना होती है जिसे नवरात्रि में किया जाता है। ये नौ दुर्गा है- 1.शैलपुत्री, 2.ब्रह्मचारिणी, 3.चंद्रघंटा, 4.कुष्मांडा, 5.स्कंदमाता, 6.कात्यायनी, 7.कालरात्रि, 8.महागौरी और 9.सिद्धिदात्री। लेकिन हम यहां आपको बताना चाहते हैं 10 महाविद्या के बारे में।
दिव्योर्वताम सः मनस्विता: संकलनाम ।
त्रयी शक्ति ते त्रिपुरे घोरा छिन्न्मस्तिके च।।
 
10 महाविद्या की साधनाएं : माता दुर्गा की एक सात्विक साधना होती है जिसे नवरात्रि में किया जाता है। नवरात्रि समाप्त होने के बाद गुप्त नवरात्रि शुरू होती है तब 10 महाविद्याओं की साधना की जाती है। आषाढ़ और माघ मास के शुक्ल पक्ष में पड़ने वाली नवरात्र को गुप्त नवरात्र कहा जाता है। गुप्त नवरात्रि विशेषकर तांत्रिक क्रियाएं, शक्ति साधना, महाकाल आदि से जुड़े लोगों के लिए विशेष महत्त्व रखती है।
 
गुप्त नवरात्रि की प्रमुख देवियां : गुप्त नवरात्र के दौरान कई साधक महाविद्या (तंत्र साधना) के लिए दस महा विद्या:- 1.काली, 2.तारा, 3.त्रिपुरसुंदरी, 4.भुवनेश्वरी, 5.छिन्नमस्ता, 6.त्रिपुरभैरवी, 7.धूमावती, 8.बगलामुखी, 9.मातंगी और 10.कमला देवी की पूजा करते हैं। सभी की पूजा के अलग अलग लाभ और महत्व है। इनमें से किसी भी एक की साधना करने से वह देवी प्रसन्न होकर साधक को अपनी शक्ति देती है और सभी मनोकामना पूर्ण करती है।

 
शास्त्रों अनुसार इन दस महाविद्या में से किसी एक की नित्य पूजा अर्चना करने से लंबे समय से चली आ रही ‍बीमार, भूत-प्रेत, अकारण ही मानहानी, बुरी घटनाएं, गृहकलह, शनि का बुरा प्रभाव, बेरोजगारी, तनाव आदि सभी तरह के संकट तत्काल ही समाप्त हो जाते हैं और व्यक्ति परम सुख और शांति पाता है। इन माताओं की साधना कल्प वृक्ष के समान शीघ्र फलदायक और सभी कामनाओं को पूर्ण करने में सहायक मानी गई है।

2. पिशाचिनी या पैशाचिनी साधनाएं : पिशाची देवी ही पिशाचिनी साधनाओं की अधिष्ठात्री देवी है। यह हमारे हृदय चक्र की देवी है। इसे बहुत ही खतरनाक तरह की साधनाएं माना जाता है। किसी भी एक पिशाचिनी की साधना करने के बाद व्यक्ति को चमत्कारिक सिद्धि प्राप्त हो जाती है। पिशाचिनी साधना में कर्ण पिशाचिनी, काम पिशाचिनी आदि का नाम प्रमुख है। पिशाच शब्द से यह ज्ञात होता है कि यह किसी खतरनाक भूत या प्रेत का नाम है लेकिन ऐसा नहीं है। यह साधनाएं भी तंत्र के अंतर्गत आती है।
 
कर्ण पिशाचिनी साधना को सिद्ध करने के बाद साधक में वो शक्ति आ जाती है कि वह सामने बैठे व्यक्ति की नितांत व्यक्तिगत जानकारी भी जान लेता है। कर्ण पिशाचिनी साधक को किसी भी व्यक्ति की किसी भी तरह की जानकारी कान में बता देती है। इस साधना की सिद्धि के पश्चात् किसी भी प्रश्न का उत्तर कोई पिशाचिनी कान में आकर देती है अर्थात् मंत्र की सिद्धि से पिशाच-वशीकरण होता है। मंत्र की सिद्धि से वश में आई कोई आत्मा कान में सही जवाब बता देती है। पारलौकिक शक्तियों को वश में करने की यह विद्या अत्यंत गोपनीय और प्रामाणिक है।

3. भैरव साधना : भगवान भैरव की साधनाएं भी कई तरह की होती है। उनमें सबसे प्रमुख है काल भैरव और बटुक भैरव साधनाएं। इसके अलावा उग्र भैरव, असितंग भैरव, क्रोध भैरव, स्वर्णाकर्षण भैरव, भैरव-भैरवी आदि साधनाएं भी होती है

भैरव को शिव का रुद्र अवतार माना गया है। तंत्र साधना में भैरव के आठ रूप भी अधिक लोकप्रिय हैं- 1.असितांग भैरव, 2. रु-रु भैरव, 3. चण्ड भैरव, 4. क्रोधोन्मत्त भैरव, 5. भयंकर भैरव, 6. कपाली भैरव, 7. भीषण भैरव तथा 8. संहार भैरव। आदि शंकराचार्य ने भी 'प्रपञ्च-सार तंत्र' में अष्ट-भैरवों के नाम लिखे हैं। तंत्र शास्त्र में भी इनका उल्लेख मिलता है। इसके अलावा सप्तविंशति रहस्य में 7 भैरवों के नाम हैं। इसी ग्रंथ में दस वीर-भैरवों का उल्लेख भी मिलता है। इसी में तीन बटुक-भैरवों का उल्लेख है। रुद्रायमल तंत्र में 64 भैरवों के नामों का उल्लेख है।

4. योगिनी साधनाएं : समस्त योगिनियों का संबंध आदि शक्ति काली के कुल से है। घोर नामक दैत्य से साथ युद्ध के समय आदि शक्ति काली ने ही समस्त योगिनियों के रूप में अवतार लिया था। महा विद्याएं, सिद्ध विद्याएं भी योगनियों की ही श्रेणी में आती हैं ये भी आद्या शक्ति काली के ही भिन्न भिन्न अवतारी अंश हैं। समस्त योगिनियां, अपने अंदर नाना प्रकार के अलौकिक शक्तिओं से सम्पन्न हैं तथा इंद्रजाल, जादू, वशीकरण, मारण, स्तंभन इत्यादि कर्म इन्हीं की कृपा द्वारा ही सफल हो पाते हैं। मुख्य रूप से योगिनियां अष्ट योगिनी तथा चौसठ योगिनी के नाम से जानी जाती हैं, जो अपने गुणों तथा स्वभाव से भिन्न-भिन्न रूप धारण करती हैं। 
 
अष्ट योगिनियां- 1. सुर-सुंदरी योगिनी, 2. मनोहरा योगिनी 3. कनकवती योगिनी 4. कामेश्वरी योगिनी, 5. रति सुंदरी योगिनी 6. पद्मिनी योगिनी 7. नतिनी योगिनी और 8. मधुमती योगिनी हैं। 
 
चौसठ योगिनी- १.बहुरूप, २.तारा, ३.नर्मदा, ४.यमुना, ५.शांति, ६.वारुणी, ७.क्षेमंकरी, ८.ऐन्द्री, ९.वाराही १०.रणवीरा, ११.वानर-मुखी, १२.वैष्णवी, १३.कालरात्रि, १४.वैद्यरूपा, १५.चर्चिका, १६.बेतली १७.छिन्नमस्तिका, १८.वृषवाहन, १९.ज्वाला कामिनी, २०.घटवार, २१.कराकाली, २२.सरस्वती, २३. बिरूपा, २४.कौवेरी, २५.भलुका, २६.नारसिंही, २७.बिरजा, २८.विकतांना, २९.महालक्ष्मी, ३०.कौमारी, ३१.महामाया, ३२.रति, ३३.करकरी, ३४.सर्पश्या, ३५.यक्षिणी, ३६.विनायकी, ३७.विंद्यावालिनी, ३८.वीर कुमारी, ३९.माहेश्वरी, ४०.अम्बिका, ४१.कामिनी, ४२. घटाबरी, ४३. स्तुती, ४४. काली, ४५. उमा, ४६.नारायणी, ४७.समुद्र, ४८.ब्रह्मिनी, ४९.ज्वालामुखी, ५०.आग्नेयी, ५१.अदिति, ५२.चन्द्रकान्ति, ५३. वायुवेगा, ५४.चामुण्डा, ५५.मूरति, ५६.गंगा, ५७.धूमावती, ५८.गांधार, ५९.सर्व मंगला, ६०.अजिता, ६१.सूर्य पुत्री, ६२.वायु वीणा, ६३.अघोर और ६४.भद्रकाली हैं।

5. यक्ष और यक्षिणी : यक्ष की स्त्रियों को यक्षिणियां कहते हैं। ये भी कई प्रकार के होते हैं जो भूमि में गड़े हुए खजाने आदि के रक्षक हैं, इन्हें निधि पति भी कहा जाता हैं। इनके सर्वोच्च स्थान पर निधि पति 'कुबेर' विराजित हैं तथा देवताओं के निधि के रक्षक हैं।
 
ये देहधारी होते हुए भी सूक्ष्म रूप से युक्त होकर जहां चाहे वहां विचरण कर सकते हैं। इनका प्रमुख कर्म धन से संबंधित हैं, ये गुप्त धन या निधियों की रक्षा करते हैं तथा समृद्धि, वैभव, राज पाट के स्वामी हैं। आदि काल से ही, मनुष्य धन से सम्पन्न होने हेतु, अपने धन की रक्षा हेतु, यक्षों की अराधना करते आए हैं। भिन्न-भिन्न यक्षों की प्राचीन पाषाण प्रतिमा भारत के विभिन्न संग्रहालयों में आज भी सुरक्षित हैं, जो खुदाई से प्राप्त हुए हैं।
 
तंत्रो के अनुसार, रतिप्रिया यक्षिणी, साधक से संतुष्ट होने पर 25 स्वर्ण मुद्राएं प्रदान करती हैं। इसी तरह सुसुन्दरी यक्षिणी, धन तथा संपत्ति सहित, पूर्णायु, अनुरागिनी यक्षिणी, 1000 स्वर्ण मुद्राएं, जलवासिनी यक्षिणी, भिन्न प्रकार के नाना रत्नों को, वटवासिनी यक्षिणी, नाना प्रकार के आभूषण तथा वस्त्र को प्रदान करती हैं। तंत्र ग्रंथों में यक्षिणी तथा यक्ष के साधना के विस्तृत विवरण मिलते हैं।
 
प्रमुख यक्षिणियां है - 1. सुर सुन्दरी यक्षिणी, 2. मनोहारिणी यक्षिणी, 3. कनकावती यक्षिणी, 4. कामेश्वरी यक्षिणी, 5. रतिप्रिया यक्षिणी, 6. पद्मिनी यक्षिणी, 7. नटी यक्षिणी और 8. अनुरागिणी यक्षिणी।

6. अप्सरा साधना : हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार अप्सरा देवलोक में रहने वाली अनुपम, अति सुंदर, अनेक कलाओं में दक्ष, तेजस्वी और अलौकिक दिव्य स्त्री है। वेद और पुराणों में उल्लेख मिलता है कि देवी, परी, अप्सरा, यक्षिणी, इन्द्राणी और पिशाचिनी आदि कई प्रकार की स्त्रियां हुआ करती थीं। उनमें अप्सराओं को सबसे सुंदर और जादुई शक्ति से संपन्न माना जाता है।
 
अप्सरा साधना : माना जाता है कि अप्सराएं गुलाब, चमेली, रजनीगंधा, हरसिंगार और रातरानी की गंध पसंद करती है। वे बहुत सुंदर और लगभग 16-17 वर्ष की उम्र समान दिखाई देती है। अप्सरा साधना के दौरान साधक को अपनी यौन भावनाओं पर संयम रखना होता है अन्यथा साधना नष्ट हो सकती है। संकल्प और मंत्र के साथ जब साधना संपन्न होती है तो अप्सरा प्रकट होती है तब साधन उसे गुलाब के साथ ही इत्र भेंट करता है। उसे फिर दूध से बनी मिठाई, पान आदि भेंट दिया जाता है और फिर उससे जीवन भर साथ रहने का वचन लिया जाता है। ये चमत्कारिक शक्तियों से संपन्न अप्सरा आपकी जिंदगी को सुंदर बनाने की क्षमता रखती है।
 
कितनी हैं अप्सराएं : शास्त्रों के अनुसार देवराज इन्द्र के स्वर्ग में 11 अप्सराएं प्रमुख सेविका थीं। ये 11 अप्सराएं हैं- कृतस्थली, पुंजिकस्थला, मेनका, रम्भा, प्रम्लोचा, अनुम्लोचा, घृताची, वर्चा, उर्वशी, पूर्वचित्ति और तिलोत्तमा। इन सभी अप्सराओं की प्रधान अप्सरा रम्भा थी।
 
अलग-अलग मान्यताओं में अप्सराओं की संख्या 108 से लेकर 1008 तक बताई गई है। कुछ नाम और- अम्बिका, अलम्वुषा, अनावद्या, अनुचना, अरुणा, असिता, बुदबुदा, चन्द्रज्योत्सना, देवी, घृताची, गुनमुख्या, गुनुवरा, हर्षा, इन्द्रलक्ष्मी, काम्या, कर्णिका, केशिनी, क्षेमा, लता, लक्ष्मना, मनोरमा, मारिची, मिश्रास्थला, मृगाक्षी, नाभिदर्शना, पूर्वचिट्टी, पुष्पदेहा, रक्षिता, ऋतुशला, साहजन्या, समीची, सौरभेदी, शारद्वती, शुचिका, सोमी, सुवाहु, सुगंधा, सुप्रिया, सुरजा, सुरसा, सुराता, उमलोचा आदि।

4. वीर या बीर साधना : सभी वीरों की शक्तियां एक-दूसरे से भिन्न हैं। ये अलग-अलग शक्तियों से संपन्न होते हैं। गुप्त नवरात्रि में और कुछ विशेष दिनों में वीर साधना की जाती है। वीर साधना को तांत्रिक साधना के अंतर्गत माना गया है। मूलत: 52 वीर हैं।

वीरों के विषय में सर्वप्रथम पृथ्वीराज रासो में उल्लेख है। वहां इनकी संख्या 52 बताई गई है। इन्हें भैरवी के अनुयायी या भैरव का गण कहा गया है। इन्हें देव और धर्मरक्षक भी कहा गया है। मूलत: ये सभी कालिका माता के दूत हैं। उत्तरप्रदेश, बिहार, मध्यप्रदेश, राजस्थान, पंजाब आदि प्रांतों में कई वीरों की मंदिरों में अन्य देवी और देवताओं के साथ प्रतिमाएं भी स्थापित हैं। राजस्थान में जाहर वीर, नाहर वीर, वीर तेजाजी महाराज आदि के नाम प्रसिद्ध हैं।
 
कहते हैं कि वीर साधना एक बंद कमरे में, श्मशान में या किसी एकांत स्थान पर की जाती है, जहां कोई आता-जाता न हो। कई दिन, कई रातों तक महाकाली की पूजा करने के पश्चात कहा जाता है कि पूजा के दौरान एक ऐसा क्षण आता है, जब काली के दूत सामने आते हैं और साधक की मनोकामना पूर्ण करते हैं। वीर साधना को तांत्रिक साधना के अंतर्गत माना जाता है इसलिए ध्यान रहे कि यह साधना किसी गुरु या जानकार से पूछकर ही करें।

8. गंधर्व साधना : गंधर्वों को देवताओं का साथी माना गया है। गंधर्व विवाह, गंधर्व वेद और गंधर्व संगीत के बारे में आपने सुना ही होगा। एक राजा गंधर्वसेभी हुए हैं जो विक्रमादित्य के पिता थे। गंधर्व नाम से देश में कई गांव हैं। गांधार और गंधर्वपुरी के बारे में भी आपने सुना ही होगा। दरअसल, गंधर्व नाम की एक जाति प्राचीनकाल में हिमालय के उत्तर में रहा करती थी। उक्त जाति नृत्य और संगीत में पारंगत थी। वे सभी इंद्र की सभा में नृत्य और संगीत का काम करते थे। 
 
गन्धर्व नाम से एक अकेले देवता थे, जो स्वर्ग के रहस्यों तथा अन्य सत्यों का उद्घाटन किया करते रहते थे। वे देवताओं के लिए सोम रस प्रस्तुत करते थे। विष्णु पुराण के अनुसार वे ब्रह्मा के पुत्र थे और चूंकि वे मां वाग्देवी का पाठ करते हुए जन्मे थे, इसीलिए उनका नाम गंधर्व पड़ा। दरअसल, ऋषि कश्यप की पत्नी अरिष्ठा से गंधर्वों का जन्म हुआ। अथर्ववेद में ही उनकी संख्या 6333 बतायी गई है।

9. नाग और सर्प साधनाएं : हिन्दू धर्म में नाग और सर्प को चमत्कारिक माना जाता है। नाग और सर्प में दिव्य आत्माएं निवास करती हैं। प्राचीनकाल में नाग नामक एक रहस्यमयी जाती हुआ करती थी। प्रजापकित कश्यप की पत्नी कद्रू से नागों की उत्पत्ति हुई है। नागों में प्रमुख- अनंत (शेष), वासुकी, तक्षक, कार्कोटक और पिंगला- उक्त पांच नागों के कुल के लोगों का ही भारत में वर्चस्व था। यह सभी कश्यप वंशी थे। इन्ही से नागवंश चला।
 
नाग से संबंधित कई बातें आज भारतीय संस्कृति, धर्म और परम्परा का हिस्सा बन गई हैं, जैसे नाग देवता, नागलोक, नागराजा-नागरानी, नाग मंदिर, नागवंश, नाग कथा, नाग पूजा, नागोत्सव, नाग नृत्य-नाटय, नाग मंत्र, नाग व्रत और अब नाग कॉमिक्स।
 
ग्रामिण क्षेत्रों में बहुत से लोगों के शरीर में नागदेवता आकर लोगों की समस्या का समाधान करते हैं। सर्पो तथा नागों ने देवताओं की कठिन साधना, तपस्या की तथा उन के निकट का ही विशेष पद भी प्राप्त किया। आज भी नागों की कई आलौकिक शक्तियां विचरण कर रही है। नागों के आह्‍वान और उनकी साधना करके मनचाही सफलता और मनोकामना पाई जाती है। नाग पूजा और साधना के विशेष दिन होते हैं।
 
कद्रू को नागों की माता कहा गया है। देवी मनसा, जो भगवान शिव की बेटी हैं, उन्हें भी नाग माता कहा जाता हैं, जिनका विवाह जरत्कारू नाम के ऋषि के साथ हुआ था। जनमेजय द्वारा सर्पों के नाश के लिए किए गए यज्ञ से सर्पों की रक्षा की थी देवी मनसा के पुत्र आस्तिक ने।
 
सर्प प्रजाति के मुख्य 12 सर्प हैं जीने के नाम- 1. अनंत 2. कुलिक 3. वासुकि 4. शंकुफला 5. पद्म 6. महापद्म 7. तक्षक 8. कर्कोटक 9. शंखचूड़ 10. घातक 11. विषधान 12. शेष नाग।

10. किन्नर और किन्नरियां साधना : प्राचीनकाल में देवाताओं के साथ जहां गंधर्व रहते थे वहीं एक दूसरे क्षेत्र में किन्नर जाति के लोग भी रहते थे। किन्नर जाति के लोग पहाड़ी क्षेत्र में रहते थे। ये लोग अपने अनुपम तथा मनमोहक सौन्दर्य के लिए प्राचीन काल से ही प्रसिद्ध हैं।
 
किन्नरों को मृदुभाषी तथा गायन में निपुण माना गया है। हिन्दू तंत्र ग्रंथों में किन्नरियों को विशेष स्थान प्राप्त है। किन्नरियों में रूप परिवर्तन की अद्भुत काला होती है। गायन तथा सौंदर्यता हेतु इनकी साधना विशेष लाभप्रद हैं। परिणामस्वरूप प्राचीन काल से किन्नरियों की साधना ऋषि मुनियों द्वारा की जाती हैं। किन्नरियों का वरदान अति शीघ्र तथा सरलता से प्राप्त हो जाता हैं।
 
माना जाता है कि प्रमख रूप से छह किन्नरियों का समूह है- 1. मनोहारिणी किन्नरी 2. शुभग किन्नरी 3. विशाल नेत्र किन्नरी 4. सुरत प्रिय किन्नरी 5. सुमुखी किन्नरी और 6. दिवाकर मुखी किन्नरी। 

नायिका साधना : यक्षिणियां तथा अप्सराओं की उपजाति में नायिकाएं आती हैं। यह भी यक्षिणियों और अप्सराओं की तरह मन मुग्ध करने वाले सौन्दर्य से परिपूर्ण होती है। इनकी साधना वशीकरण तथा सुंदरता प्राप्ति हेतु की जाती हैं।

माना जाता है कि नारियों को आकर्षित करने का हर उपाय इनके पास हैं। ये मुख्यतः 8 हैं- 1. जया 2. विजया 3. रतिप्रिया 4. कंचन कुंडली 5. स्वर्ण माला 6. जयवती 7. सुरंगिनी 8. विद्यावती। इन नायिकाओं का भी इस्तेमाल देवता लोग ऋषि-मुनियों की तपस्या भंग करने के लिए किया करते थे।

11. अन्य साधनाएं : इसके अलावा डाकिनी-शाकिनी, विद्याधर, सिद्ध, दैत्य, दानव, राक्षस, गुह्मक, भूत, वेताल, अघोर और रावण आदि की साधना भी होती है। वैसे हम यहां साबर साधना के बारे में बता रहे हैं। यह साधाना तुरंत सिद्ध होने वाली और असरकारक होती है। साबर साधनाएं कई प्रकार की होती है।
 
साबर साधनाएं : वैदिक अथवा तांत्रोक्त अनेक ऐसे मंत्र हैं, जिसमें साधना करने के लिए अत्यंत सावधानी की जरूरत होती है। असावधानी से कार्य करने पर प्रभाव प्राप्त नहीं होता अथवा सारा श्रम व्यर्थ चला जाता है, परंतु शाबर मंत्रों की साधना या सिद्धि में ऐसी कोई आशंका नहीं होती। यह सही है कि इनकी भाषा सरल और सामान्य होती है। माना जाता है कि लगभग सभी साबर साधनाओं और मंत्रों का अविष्कार गुरु गोरखनाथ ने किया है।
 
।।ओम गुरुजी को आदेश गुरजी को प्रणाम, धरती माता धरती पिता, धरती धरे ना धीरबाजे श्रींगी बाजे तुरतुरि आया गोरखनाथमीन का पुत् मुंज का छड़ा लोहे का कड़ा हमारी पीठ पीछे यति हनुमंत खड़ा, शब्द सांचा पिंड काचास्फुरो मन्त्र ईश्वरो वाचा।।
 
इस मन्त्र को सात बार पढ़ कर चाकू से अपने चारों तरफ रक्षा रेखा खींच ले गोलाकार, स्वयं हनुमानजी साधक की रक्षा करते हैं। शर्त यह है कि मंत्र को विधि विधान से पढ़ा गया हो।
 
साबर मंत्रों को पढ़ने पर ऐसा कुछ भी अनुभव नहीं होता कि इनमें कुछ विशेष प्रभाव है, परंतु मंत्रों का जप किया जाता है तो असाधारण सफलता दृष्टिगोचर होती है। कुछ मंत्र तो ऐसे हैं कि जिनको सिद्ध करने की जरूरत ही नहीं है, केवल कुछ समय उच्चारण करने से ही उसका प्रभाव स्पष्ट दिखाई देने लगता है। यदि किसी मंत्र की संख्या निर्धारित नहीं है तो मात्र 1008 बार मंत्र जप करने से उस मंत्र को सिद्ध समझना चाहिए।
 
दूसरी बात शाबर मंत्रों की सिद्धि के लिए मन में दृढ़ संकल्प और इच्छा शक्ति का होना आवश्यक है। जिस प्रकार की इच्छा शक्ति साधक के मन में होती है, उसी प्रकार का लाभ उसे मिल जाता है। यदि मन में दृढ़ इच्छा शक्ति है तो अन्य किसी भी बाह्य परिस्थितियों एवं कुविचारों का उस पर प्रभाव नहीं पड़ता।